नई दिल्लीः Supreme Court reprimanded ED सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को एक मामले की सुनवाई करते हुए प्रवर्तन निदेशायलय (ED) की जमकर क्लास लगाई। सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दूरसंचार सेवा के अधिकारी अरुण कुमार त्रिपाठी को ईडी द्वारा हिरासत में रखे जाने पर आपत्ति जताई। दरअसल छत्तीसगढ़ शराब घोटाले में PMLA के तहत अरुण त्रिपाठी के खिलाफ शिकायत पर संज्ञान लेने के आदेश को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने रद्द कर दिया था।
इसके बावजूद भी उन्हें हिरासत में रखा गया था। सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई कर रहे जस्टिस एएस ओका व जस्टिस उज्जल भुइयां की बेंच ने त्रिपाठी को जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया। इसके साथ ही कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि PMLA का मकसद यह नहीं हो सकता कि किसी व्यक्ति को जबरन जेल में रखा जाए।
Supreme Court reprimanded ED

प्रवर्तन निदेशालय की टीम ने अरुण त्रिपाणी को 8 अगस्त, 2024 को गिरफ्तार किया था, लेकिन छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने 7 फरवरी 2025 को उनके खिलाफ दर्ज शिकायत का संज्ञान लेने वाले स्पेशल कोर्ट के आदेश को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि उन पर मुकदमा चलाने के लिए जरूरी मंजूरी नहीं ली गई थी।
क्या कहा था हाई कोर्ट ने? Supreme Court reprimanded ED

छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट की दो जजों वाली बेंच के पुराने फैसले का हवाला दिया, जिसमें जस्टिस ओका की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा था कि दंड प्रक्रिया संहिता यानी सीआरपीसी की धारा 197(1) के तहत किसी भी सरकारी कर्मचारी के खिलाफ मुकदमा चलाने से पहले सरकार की मंजूरी ली जानी आवश्यक है। इस प्रक्रिया का पालन PMLA के मामलों में भी लागू होता है।
एसवी राजू ने क्या तर्क दिया Supreme Court reprimanded ED
ईडी से सवाल करते हुए जस्टिस ओका ने एडिशनल सॉलिसिटर जनरल एसवी राजू से पूछा कि अगर संज्ञान (cognisance) रद्द कर दिया गया है, तो आरोपी को जेल में क्यों होना चाहिए?’ एसवी राजू ने इसके जवाब में तर्क दिया कि संज्ञान लेने के आदेश को रद्द करने से गिरफ्तारी अवैध नहीं हो जाती। उन्होंने यह भी कहा कि अब मंजूरी ले ली गई है और ईडी ने फिर से संज्ञान के लिए आवेदन किया है।
498A के मामलों से की तुलना Supreme Court reprimanded ED
जस्टिस ओका ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498A (जो पति या ससुराल पक्ष द्वारा विवाहित महिला पर क्रूरता को अपराध मानती है) के कथित दुरुपयोग से इसकी तुलना करते हुए कहा, ‘PMLA का मकसद किसी व्यक्ति को जबरन जेल में रखना नहीं हो सकता। मैं साफ-साफ कहूं, कई मामलों को देखकर, देखें कि 498A मामलों में क्या हुआ, अगर ED का यही तरीका है…अगर प्रवृत्ति यह है कि किसी व्यक्ति को किसी भी तरह जेल में ही रखा जाए, भले ही संज्ञान को रद्द कर दिया गया हो, तो इस पर क्या कहा जा सकता है?’
अदालत ने कहा, ‘अगर अधिकारी ईमानदारी से कार्रवाई नहीं करेंगे तो उन्हें इसकी सजा भुगतनी चाहिए। यह आवेदन ED द्वारा पेश किया जाना चाहिए था ना कि आरोपी द्वारा। ED को हर मामले में स्पष्ट रुख अपनाना चाहिए।’