Mohan Bhagwat’s statement on 75 years : अब कोई 75 का नहीं होगा, क्योंकि बड़े वालों ने ठोककर किया बड़ा होने से इनकार!! बादल सरोज की कलम से

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Mohan Bhagwat’s statement on 75 years जिन्हें सितम्बर महीने में एक ही सप्ताह के भीतर दो-दो विदाई समारोह की फुलझड़ियों और उनकी जगह आने वालों के स्वागत में आतिशबाजी की गलतफहमियाँ थी, उनकी सारी उम्मीदों पर घड़ा भर ठण्डा पानी उड़ेलते हुए 75 वर्ष में रिटायरमेंट की योजना को सिरा दिया गया है। बात वहीँ से ख़त्म हुई, जहां से शुरू हुई थी।

ज्यादा पुरानी बात नहीं है – अभी 10 जुलाई को ही सरसंघचालक मोहन भागवत ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में 75 वर्ष में राजनीति से रिटायर होने और पद छोड़ने की बात बहुत जोर देकर कही थी। नागपुर में एक पुस्तक विमोचन समारोह में उन्होंने कहा कि “नेता के लिए 75 साल होने का मतलब है कि उसको राजनीति छोड़ देना चाहिए और दूसरों के लिए रास्ता बनाना चाहिए।” यह यूं ही मुंह से निकल गयी मन की बात या जुबान का फिसलना नहीं था।

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Mohan Bhagwat’s statement on 75 years

Mohan Bhagwat's statement on 75 years
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उन्होंने इसे और स्पष्ट करते हुए, जिनकी पुस्तक का वे विमोचन कर रहे थे, उन संघ विचारक मोरोपंत पिंगले का कहा भी याद दिलाया। बात को आगे बढाते हुए उन्होंने आगे कहा कि “इस दुनिया को अलविदा कहने से पहले पिंगले ने एक बार कहा था कि अगर 75 साल की उम्र के बाद आपको शॉल ओढ़ाकर सम्मानित किया जाता है, तो इसका मतलब है कि अब आपको रुक जाना चाहिए, आप बूढ़े हो गए हैं,

एक तरफ हट जाइए और दूसरों को आने दीजिए।” यह एक ऐसा स्पष्ट वक्तव्य है, जिसके बारे में कोई भी गलत उधृत, अलग व्याख्या करने, तोड़-मरोड़ करने का आरोप नहीं लगाया जा सकता।

Mohan Bhagwat’s statement on 75 years

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लोगों ने इसे उतना ही पढ़ा और समझा, जितना कहा और समझाया गया था। कयास लगने शुरू हो गए। 11 सितम्बर को भागवत जी 75 के होने वाले थे, जन्म दिनांकों के मामले में स्वघोषित द्विज नरेन्द्र मोदी जन्म की बाद वाली तारीख के हिसाब से  17 सितम्बर को 75 पूरी करने जा रहे थे, सो हलचल होनी ही थी। कुछ नाम तक उछाले जाने लगे – सुनते हैं कि नागपुर के अन्तःपुर की रग-रग से वाकिफ गड़करी तक मुगालते में आ गए और नए कुरते पाजामों के नाप देने का मन बनाने लगे। मगर 10 जुलाई को जिन्होंने भय दिया था, 28 अगस्त को उन्हीं भागवत जी ने अभयदान  दे  दिया।

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अपने कहे से वे सफा मुकर गए और दावा किया कि उन्होंने कही नहीं कहा कि उन्हें या किसी और को 75 साल की उम्र में रिटायरमेंट ले लेना चाहिए। अब जिन्हें 75 होने के चक्कर में बड़ा बताकर खजूर का पेड़ करार देकर शाल पहनाया जा चुका है, उन अडवाणी और पंडित जी मुरली मनोहर जोशी पर क्या गुजरी होगी, ये तो वे ही जाने, लेकिन एक ही व्यक्ति के मुखारविन्द से  तड़ातड़ निकले एकदम  विरोधाभासी बयानों ने बाकी लोगों को जरूर विस्मय और कौतुक में डाल दिया।

कहे से मुकरने के लिए उन्होंने  “100 वर्ष की संघ यात्रा : नए क्षितिज” के नाम से दिल्ली में हुए चुनिन्दा लोगों के साथ  तीन दिवसीय ‘संवाद’ का मंच चुना। यह एक तरह से ठीक ही जगह थी। इससे  लोग इन सौ वर्षों में संघ की कथनी और करनी के फर्क के इतिहास को वर्तमान में देखने का सुख पा गए और नए क्षितिजों की झलक भी देख ली।

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इस संवाद  में ऐसी अनेक बातों के क्षितिज ही क्षितिज थे। उन पर आने से पहले इस रोचक बयान वापसी और बड़े वालों के सबसे बड़े द्वारा बड़ा होने से ठोक कर किये इंकार के पीछे की कुछ छोटी-बड़ी बातों पर नजर डालना मजेदार होगा। इन तीन दिनों के प्रबोधन में दिए उदबोधनों में संघ प्रमुख ने भारत के हिन्दू राष्ट्र बन जाने का दावा किया है, पिछले तीनेक साल से उनके संघ ने हिन्दू की जगह सनातन को वापरना शुरू कर दिया है। अब जिस अंदाज में वे हिन्दू कह रहे हैं, वह हो या सनातन हो, दोनों ही में चार वर्ण की व्यवस्था के साथ जीवन के चार आश्रमों का भी विधान है।

मनुष्य की आयु को 100 वर्ष की मानकर चलते हुए पहली 25 वर्ष ब्रह्मचर्य, दूसरी 25 वर्ष गृहस्थ, तीसरी 25 वर्ष वानप्रस्थ और चौथी पचीसी, जो 75 वर्ष से आरम्भ होती है उसे संन्यास आश्रम का नाम दिया गया है। निर्देश दिया गया है कि इस चौथे आश्रमी को सिर्फ धर्म प्रचार करना चाहिए और मोक्ष हासिल करने का प्रयास करना चाहिए!! ऐसा क्या हुआ कि अब ये दोनों ही इस नियत काम से बच कर सांसारिक माया-मोह में ही फंसे रहना चाहते है।

10 जुलाई को जब वे “नेता के लिए 75 साल होने का मतलब है कि आपको राजनीति छोड़ देना चाहिए और दूसरों के लिए रास्ता बनाना चाहिए ” के आप्तवचन बोल रहे थे, तब उनके भान में शायद नहीं रहा होगा कि इन दिनों इन सबके ऊपर एक नया आश्रम – कारपोरेट सेवा आश्रम – आ बैठा है और बाकी सारे आश्रमों की कालावधि वही तय कर रहा। इस कारपोरेट आश्रम के शीर्ष पण्डे ही नियुक्ति और निवृत्ति का समय तय करते हैं ;

कब-कब क्या करना है, यह दायित्व भी वे ही सौंपते हैं, जो करना है, वे ही करेंगे, बाकियों का काम खुद को निर्णायक समझने के प्रमाद में आना नहीं है। उनका काम है दिया गया प्रसाद खाना और प्रतिदान में पाई खैरात से  अट्टालिकाएं और प्रासादगृह बनाना और उनमें बैठकर, जो बताया जाए, उसे दत्तचित्त भाव से अमल में लाना है। न इससे ज्यादा – न कम।

इन तीन दिनी संवाद से यह भी साफ़ हो गया कि पिचहत्तर-सतहत्तर छोडिये, यह संगठन तो पूरे सौ साल में भी बड़ा नहीं हुआ – जिस तरह बड़ा होना चाहिए, उस तरह तो बिलकुल भी बड़ा नहीं हुआ। बड़े होने का अर्थ विराटाकार होना नहीं होता, सीखते-समझते संस्कार में सुथरा होना होता है।

आरएसएस जैसे संगठनों के लिए तो यह और भी आवश्यक है, क्योंकि डॉ. हेडगेवार, डॉ. मुंजे से लेकर इनके गुरु जी आदि  संस्थापकों  ने इटली और जर्मनी के मुसोलिनी और हिटलर के जिस मॉडल को लिखा-पढ़ी में अपना आदर्श और प्रेरणा स्रोत मानकर यात्रा शुरू की थी, वे इतिहास में युद्ध अपराधी के रूप में दर्ज हो चुके है। हाल के दशकों में नस्ल और धर्म का बाना ओढ़कर किये गए इसी तरह के दुस्साहसों से भी दुनिया गुजर चुकी है। मगर इन पूरे सौ सालों में संघ में कुछ नहीं बदला। शताब्दी उदबोधन के संबोधन में भी वही था.

; मूल विषयों से बचना, देश और जनता के वास्तविक सवालों से मुंह चुराना और साफ़-साफ़ कहने की बजाय गोल-गोल घूमना और घुमाना। इस अदाकारी में संघ की दक्षता और क्षमता का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। ऐसे अनेक दावे इन तीन दिनों और उसके साथ हुए प्रश्नोत्तरों में किये गए। जैसे संघ प्रमुख ने दावा किया कि संघ किसी का विरोधी नहीं है, कि न उसका कोई अधीनस्थ संगठन है।

लगता है, वे यह कहना चाह रहे थे कि बी एम एस, विद्यार्थी परिषद, विश्व हिन्दू परिषद्, वनवासी कल्याण परिषद, अलानी विद्वत परिषद और फलानी इतिहास परिषद आदि-इत्यादि आँखों का भरम है।

भाजपा की हर स्तर की समितियों में संगठन सचिव के रूप में बिठाया, संघ से पठाया गया स्वयंसेवक दरअसल उस स्वयंसेवक का निजी भ्रमण है। इस बात के लिए इस देश की मजबूत धर्मनिरपेक्ष और समावेशी परम्परा की शक्ति को सलाम करना चाहिए कि उसने अपना असर इस कदर बनाए रखा है कि संघ अपनी पहचान उजागर करने और जो वह करना चाहता है, उसे कहने का साहस जुटा सके।

यह भाव इस शताब्दी का संवाद का मूल भाव था ; लगातार विकसित होती नारी मुक्ति की चेतना का असर था कि संघ प्रमुख को महिला-पुरुष दोनों को एक दूजे का पूरक बताने से तक तो आना ही पड़ा था –

यह बात अलहदा है कि इस पूरकता में कौन, किस स्थिति में है, यह उन्होंने नहीं बताया। हिंदुत्व की दुहाई दी, मगर उसकी असली, सावरकर प्रदत्त परिभाषा को दोहराने की बजाय गोल-गोल घुमाने का करतब दिखाना पड़ा और आख़िरी में महात्मा गांधी का सहारा लेना पड़ा। यह बात अलग है – और यह विशेषता संघ में ही है कि गांधी  के कहे को जपते हुए यह हास्यास्पद दावा भी कर दिया कि “संघ के किसी भी स्वयंसेवक द्वारा हिंसा में शामिल होने का कोई उदाहरण नहीं है।”

बड़े इसलिए भी नहीं हुए कि लौट-फिरकर बार-बार विग्रह, विभाजन और विखंडन के अपने बुनियादी एजेंडे पर वापस लौटना नहीं भूले। धर्मांतरण पर ठीक वही बात दोहराई, वही डेमोग्राफी बदल जाने और खतरे में पड़ जाने का डर दिखाया, जिसे 15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से स्वयंसेवक प्रधानमंत्री मोदी ने बोला, दिखाया था। धर्मांतरण के लिए कथित विदेशी धन आने पर भी चिंता जता दी, जबकि 11 वर्षों से सरकार में इन्हीं की तूती बोल रही है और कहीं कुछ नहीं ढूंढ पाए हैं।

भाषा के सवाल पर भी सीधे-सीधे नाम लेने की बजाय उसी दो भाषा – मातृभाषा और देशी भाषा के फार्मूले की दुहाई दी, जिस पर गैर-हिंदी प्रदेशों में जायज असंतोष है। दक्षिण में मंदिरों पर नियंत्रण हासिल करने के लिए चलाये जा रहे अभियान पर भी ठप्पा लगाया और जगहों के नाम बदले जाने की मुहिम पर भी अपनी सहमति जताई।

जहां साफ़-साफ़ बोलना था, वहां अगर-मगर और किन्तु-परन्तु का सहारा लिया, कहने को कहा, मगर जो कहना था, वह बिलकुल नहीं कहा। मनुस्मृति का नाम लिया – उसे अनेक ग्रंथों में से एक बताया, मगर उसका  तिरस्कार तो दूर की बात रही, खंडन या आलोचना तक नहीं की।

जातिभेद का उल्लेख किया, 1972 में हुए न जाने किन संतों के आव्हान का जिक्र भी किया, भारत के लोग जातिगत भेदभाव का विरोध करते हैं, यह भी कहा, मगर संघ इसका विरोध करता है या समर्थन, यह नहीं बताया। वह अपने गुरु गोलवलकर के दिए गए जाति के आधार पर समाज चलाने और मनुस्मृति को संविधान का दर्जा देने के कथन पर कायम हैं या उसे पीछे छोड़ आये हैं, यह नहीं बताया।

आरक्षण को तर्क से ही परे बताकर संवेदना से जुड़ा बता दिया और उसमे भी अगर लगा दिया कि यदि ऐसा – वंचित जाति समुदाय के साथ भेदभाव — हुआ है तो… । देश के युवाओं के बड़े सवाल को हवा में उड़ाते हुए कहा कि नौकरी मांगने की बजाय नौकरी देने वाला बनना चाहिए।

अभी तक जो बात औरों से कहलवाते रहे थे वह – तीन-तीन बच्चे पैदा करने की जरूरत भी कई कारणों को जोड़कर वैज्ञानिक बता दी। कुल मिलाकर यह कि आज भी बड़े न होने की जिद को इस तरह भी कायम रखा गया। एक तरफ राम मंदिर आन्दोलन में खुलकर हिस्सा लेने की बात कबूल की, इसे शायद वे अपने 100 वर्षों की उपलब्धियों में से प्रमुख उपलब्धि मानते हैं,

मगर स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने के सवाल को यह कहकर टाल दिया कि “संघ कभी भी सामाजिक आंदोलनों में अपना अलग झंडा नहीं उठाता, बल्कि जहाँ भी अच्छा काम हो रहा हो, स्वयंसेवक योगदान देने के लिए स्वतंत्र हैं।“

बहरहाल, इन त्रिदिवसीय संवाद की सबसे चिंताजनक घोषणा है काशी और मथुरा को लेकर किया गया एलान। संघ प्रमुख ने कहा कि “हिन्दू जन मानस में काशी, मथुरा और अयोध्या का गहरा महत्व है – दो जन्मभूमि हैं, एक निवास स्थान है। इसके लिए हिन्दू समाज का आग्रह करना स्वाभाविक है।” इसे और आगे बढाते हुए उन्होंने कहा कि मुसलमानों को ये स्थान स्वेच्छा से छोड़ देना चाहिए।

यह कोई सामान्य अपील नहीं है – यह भविष्य के क्षितिजों में से झांकता सक्रियता का वह आयाम है, जिसे लेकर लामबंदी तेज की जाने वाली है। ध्यान रहे, ये वे ही संघ प्रमुख हैं,

जिन्होंने हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग ढूँढने के लिए अपने कुनबे को ‘फटकारा’ था ; अब खुद उन्होंने मोर्चा खोलने का ऐलान-सा कर दिया है। वैसे इसमें अचरज की बात है भी नहीं, आर्थिक मोर्चे पर चौतरफा विफलताओं, दिवालिया ट्रम्पपरस्ती के चलते बढ़े वैश्विक अलगाव और कारपोरेट धन-पिशाचों द्वारा फुलाए गए गुब्बारे के पिचकने के बाद धर्म के नाम पर उन्माद फैलाना और पीड़ाओं से ध्यान बंटाना ही बचता है।

इस इरादे को समझने और उसके हिसाब से तैयारी करना उन सबका जिम्मा है, जो भारत को संवैधानिक, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, संघीय गणतंत्र के रूप में बचाए रखना चाहते हैं।

यह लेख लेखक की अपनी अभिव्यक्ति है ब्लैकआउट न्यूज़ का इस लेख से कोई सरोकार नहीं है लेखक स्वयं इसके जिम्मेदार होंगे

(लेखक ‘लोकजतन’ के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)*
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