CG farmers in food crisis : छत्तीसगढ़ में खाद संकट और कॉर्पोरेटपरस्त सरकार

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(आलेख : संजय पराते)

Chhattisgarh : CG farmers in food crisis हर साल की तरह इस बार भी पूरे देश में किसान खाद की भयंकर कमी का सामना कर रहे हैं और छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं है। इस साल भी छत्तीसगढ़ की सहकारी सोसाइटियों में यूरिया और डीएपी खाद की कमी हो गई है। गरीब किसान दो-दो दिनों तक भूखे-प्यासे लाइन में खड़े है और फिर उन्हें निराश होकर वापस होना पड़ रहा है। सरकार उन्हें आश्वासन ही दे रही है कि पर्याप्त स्टॉक है, चिंता न करे।

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किसान अपने अनुभव से जानता है कि मात्र आश्वासन से उसे खाद नहीं मिलने वाला। और यदि वह जद्दोजहद न करें, तो धरती माता भी उसे माफ नहीं करेगी और पूरी फसल बर्बाद हो जाएगी। अपनी फसल बचाने के लिए अब उसके पास एक सप्ताह का भी समय नहीं है। इसलिए वह सड़कों पर है। प्रशासन की लाठियां भी खा रहा है और अधिकारियों की गालियां भी। यह सब इसलिए कि अपना और इस दुनिया का पेट भरने के लिए उसे धरती माता का पेट भरना है।

कृषि वैज्ञानिक पी एन सिंह ने कहा CG farmers in food crisis

CG farmers in food crisis
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खरीफ सीजन में धान छत्तीसगढ़ की प्रमुख फसल है।धान की फसल के लिए यूरिया और डीएपी प्रमुख खाद है। कृषि वैज्ञानिक पी एन सिंह के अनुसार एक एकड़ धान की खेती के लिए 200 किलो यूरिया खाद चाहिए। इस हिसाब से छत्तीसगढ़ को कितना खाद चाहिए?

19 लाख टन के मुकाबले मात्र 7 लाख टन ही उपलब्ध CG farmers in food crisis

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छत्तीसगढ़ में लगभग 39 लाख हेक्टेयर में धान की खेती होती है। तो प्रदेश को 19 लाख टन यूरिया की जरूरत होगी, जबकि सहकारी सोसायटियों को केवल 7 लाख टन यूरिया उपलब्ध कराने का लक्ष्य ही राज्य सरकार ने रखा है। इस प्रकार प्रदेश में प्रति हेक्टेयर यूरिया की उपलब्धता केवल 122 किलो और प्रति एकड़ 49 किलो ही है। आप कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ में इतनी उन्नत खेती नहीं होती कि 19 लाख टन यूरिया खाद की जरूरत पड़े। यह सही है। लेकिन क्या सरकार को उन्नत खेती की ओर नहीं बढ़ना चाहिए और इसके लिए जरूरी खाद उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी नहीं बनती?

देश मे रासायनिक खाद का पूरे वर्ष में प्रति एकड़ औसत उपभोग 68 किलो है, जबकि छत्तीसगढ़ में यह मात्र 30 किलो ही है। वर्ष 2009 में यह उपभोग 38 किलो प्रति एकड़ था। स्पष्ट है कि उपलब्धता घटने के साथ खाद का उपभोग भी घटा है और इसका कृषि उत्पादन और उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। आदिवासी क्षेत्रों में तो यह उपभोग महज 10 किलो प्रति एकड़ ही है। क्या एक एकड़ में 10 किलो रासायनिक खाद के उपयोग से धान की खेती संभव है?

आदिवासी क्षेत्रों में यदि खेती इतनी पिछड़ी हुई है, तो इसका कारण उनकी आर्थिक दुरावस्था भी है। सोसाइटियों के खाद तक उनकी पहुंच तो है ही नहीं।

छत्तीसगढ़ मे डीएपी और यूरिया की बढ़ी कालाबाज़ारी CG farmers in food crisis

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छत्तीसगढ़ में डीएपी और यूरिया की कमी से खाद की कालाबाजारी बढ़ी है और 266 रुपए बोरी की यूरिया 1000 रुपए में और 1350 रुपए की कीमत वाली डीएपी की बोरी 2000 रुपए में बिक रही है। भाजपा सरकार इस कालाबाजारी को रोकने में असफल साबित हुई है। इससे फसल की लागत बढ़ जाने से खेती-किसानी प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुई है। यह संकट इस तथ्य के बावजूद है कि छत्तीसगढ़ में प्रति एकड़ खाद का उपयोग अखिल भारतीय औसत की तुलना में बहुत कम है। इस समय सभी प्रकार के खाद के उपयोग का अखिल भारतीय औसत 120 किलो प्रति एकड़ है, जबकि छत्तीसगढ़ में मात्र 38 किलो।

 

छत्तीसगढ़ में धान की खेती सहित लगभग 48 लाख हेक्टेयर रकबा में कृषि कार्य होता है। धान की फसल मुख्य है, लेकिन गन्ना, मक्का और अन्य मोटे अनाज, चना और अन्य दलहन, तिल और अन्य तिलहन और सब्जी की खेती भी भरपूर होती है। भूमि की प्रकृति, मौसम और फसल की जरूरत के अनुसार विभिन्न प्रकार के खादों का उपयोग होता है।

छत्तीसगढ़ में सरकार खरीफ सीजन के लिए औसतन 14 लाख टन खाद उपलब्ध कराती है, जिसमें 7 लाख टन यूरिया, 3 लाख टन डीएपी और 2 लाख टन एसएसपी शामिल है। यह जरूरत से बहुत कम है। लेकिन इस उपलब्धता का भी 45 प्रतिशत निजी क्षेत्र के जरिए वितरित किया जाता है और यह खाद संकट की आड़ में कालाबाजार में ही बिकता है।

वर्तमान खाद संकट डीएपी की भारी कमी से पैदा हुआ है और सरकार ने डीएपी वितरण का लक्ष्य 3 लाख टन से घटाकर 1 लाख टन कर दिया है। सरकार का तर्क है कि 3 बोरी एसएसपी और 1 बोरी यूरिया के सम्मिलित उपयोग से 1 बोरी डीएपी की कमी की भरपाई हो सकती है।

इस तर्क के अनुसार सरकार को आनुपातिक रूप से 2 लाख टन यूरिया और 6 लाख टन एसएसपी खाद अतिरिक्त उपलब्ध कराना चाहिए, लेकिन यूरिया की मात्रा बढ़ाई नहीं गई है और एसएसपी 3.5 लाख टन ही अतिरिक्त उपलब्ध कराया जा रहा है। इस प्रकार, प्रदेश में अब डीएपी के साथ ही यूरिया और एसएसपी की भी कमी हो गई है।

डीएपी की कमी के बाद अब छत्तीसगढ़ को कम से कम 22 लाख टन खाद की जरूरत है, लेकिन उपलब्ध केवल 17 लाख टन ही है। 5 लाख टन खाद की कमी है, जिससे खेती प्रतिकूल रूप से प्रभावित होगी। सरकार का दावा है कि उसने इस कमी की पूर्ति भी नैनो यूरिया और नैनों डीएपी के जरिए कर दी है। उसने सहकारी और निजी क्षेत्र को कुल 2.91 लाख बोतल (500 मिली.) नैनो यूरिया की और 2.93 लाख बोतल (500 मिली.) नैनो डीएपी उपलब्ध कराई है।

किसानों के मन में नैनो खाद की उपयोगिता और प्रभावशीलता के बारे में काफी संदेह है। लेकिन यदि मजबूरी में भी वे इन तरल उर्वरकों का उपयोग करते हैं, तो भी इसका कुल प्रभाव 7245 टन खाद के बराबर ही होगा, जो उर्वरकों की कुल कमी के केवल नगण्य हिस्से (1.5 प्रतिशत) की ही भरपाई करेंगे। डीएपी की कमी की भरपाई के लिए उसने जो कदम उठाने का दिखावा किया है, उसके कारण खाद संकट और गहरा गया है, क्योंकि अब केवल डीएपी की नहीं, यूरिया और एसएसपी की भी कमी हो गई है।

लेकिन सरकार 5 लाख टन खाद की कमी की पूर्ति का दावा नैनो खाद से करने के दावे पर अड़ी है, तो फिर सरकार के इस चमत्कार को सराहा जाएं या फिर नमस्कार किया जाये!

छत्तीसगढ़ की 1333 सहकारी सोसाइटियों में सदस्यों की संख्या 14 लाख है, जिसमें से 9 लाख सदस्य ही इन सोसाइटियों से लाभ प्राप्त करते हैं। प्रदेश में 8 लाख बड़े और मध्यम किसान है, जो इन सोसाइटियों की पूरी सुविधा हड़प कर जाते हैं। इन सोसाइटियों से जुड़े 5 लाख सदस्य और इसके दायरे के बाहर के 20 लाख किसान, कुल मिलाकर 25 लाख लघु व सीमांत किसान इनके लाभों से वंचित हैं और बाजार के रहमो-करम पर निर्भर है।

उनकी हैसियत इतनी नहीं है कि वे बाजार जाकर सरकारी दरों से दुगुनी-तिगुनी कीमत पर कालाबाजारी में बिक रहे खाद को खरीद सके।

यदि किसानों को खाद सहज रूप से मिले, तो भी डीएपी की जगह यूरिया और एसएसपी खाद के उपयोग से प्रति एकड़ लागत 1000 रूपये बढ़ जाएगी। लेकिन यदि कालाबाजारी में उन्हें खाद खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ा, तो खेती-किसानी पर 2000 रुपए प्रति एकड़ की अतिरिक्त लागत बैठेगी। यदि प्रति एकड़ औसतन 1500 रुपए अतिरिक्त लागत को ही गणना में लें, तो 1800 करोड़ रुपए का अतिरिक्त भार किसान समुदाय पर पड़ेगा।

इससे खेती-किसानी और ज्यादा घाटे में जायेगी। प्रधानमंत्री किसान योजना में या बोनस में भी इतनी राशि किसानों को नहीं मिलती। यह इस हाथ ले, उस हाथ दे वाली स्थिति है।

भाजपा के ‘सायं-सायं’ राज में कॉरपोरेटों की बल्ले बल्ले CG farmers in food crisis

किसान आत्महत्या के मामले में छत्तीसगढ़ अग्रणी राज्यों में से एक है। जब तक एनसीआरबी के आंकड़े उपलब्ध थे, उसके विश्लेषण से पता चलता है कि यहां हर साल एक लाख किसान परिवारों के बीच 45 किसान आत्महत्या कर रहे थे। मोदी राज में जितने बड़े पैमाने पर कृषि का कॉरपोरेटीकरण हुआ है और भाजपा के ‘सायं-सायं’ राज में इस प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों को कॉरपोरेटों के हाथों में सौंपा जा रहा है,

उससे यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि कृषि संकट और बढ़ गया है और प्रदेश में किसान आत्महत्याओं में और बढ़ोतरी हो गई होगी।

किसानों की दुर्दशा के लिए मोदी सरकार की कॉर्पोरेटपरस्त नीतियां जिम्मेदार हैं। मोदी सरकार उर्वरक क्षेत्र में निजीकरण की जिन नीतियों पर चल रही है, उसके कारण खाद की कीमतों पर सरकार का नियंत्रण खत्म हो गया है। इन नीतियों की कीमत किसान अपनी जान देकर चुका रहे हैं। वे लाइन में खड़े-खड़े मर रहे हैं, वे साहूकारी और माइक्रोफाइनेंस कर्ज के मकड़जाल में फंसकर मर रहे हैं या फिर वे आत्महत्या कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ की खेती-किसानी के लिए यह खतरनाक स्थिति है।

लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।
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