(आलेख : बादल सरोज)Birth of Israel and important events इतिहास में इसरायल नाम का देश दुनिया के नक़्शे पर कभी नहीं रहा। यहूदी धर्म के अनुयायी दुनिया भर के देशों में, कहीं थोड़े, कहीं बहुत थोड़े, रहे और रहते रहे। करीब 4000 वर्ष पहले अब्राहम के संदेशे और उनके पोते यहूदा के नाम पर बने यहूदियों को न कभी देश बनाने की सूझी, ना ही उसकी जरूरत पड़ी। इसकी असल वजह तो और भी दिलचस्प है
और वह यह है कि आज जिस यहूदी धर्म के लोगों का देश बनाने की बात की जा रही है, उस यहूदी धर्म में देश या राष्ट्र का कांसेप्ट ही नहीं रहा। बल्कि ज्यादा सही यह है कि भौगोलिक अस्तित्व वाले देश की अवधारणा का निषेध रहा है।
Birth of Israel and important events
अचानक कोई सवा सौ साल पहले ये “अपना देश” बनाने की खुराफात शुरू हुयी। 1897 में पहली जिओनिस्ट कांग्रेस हुयी ; ध्यान दें यह यहूदी सम्मेलन नहीं, यहूदीवादी सम्मेलन था। यह अंतर मार्के का है, जैसे हिन्दू और हिंदुत्ववादी के बीच का अंतर है, जैसे इस्लाम और तालिबान का अंतर है — ये आकाश-पाताल का फर्क है।
उस समय के ज्यादातर यहूदियों ने, ऑर्थोडॉक्स और सुधारवादी दोनों तरह के यहूदियों ने, इस सम्मेलन के आयोजन का विरोध किया। विरोध इतना मुखर और तीखा था कि यह सम्मेलन सबसे घनी यहूदी आबादी वाले जिस शहर म्यूनिख (जर्मनी) में होना था, वहां यहूदियों ने ही नहीं होने दिया।
आयोजकों को स्विट्ज़रलैंड के शहर बासेल में यह सम्मेलन करना पड़ा या कहें, उनसे करवाया गया। इस सम्मेलन की सारी कार्यवाही जर्मन भाषा में चलीं और इसने यहूदियों का अपना देश बनाने का प्रस्ताव पारित किया।
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ज्यादातर यहूदियों ने इस आव्हान को खारिज कर दिया। उनकी आपत्तियां दो थीं :
*एक* — धर्म में ही देश या राष्ट्र की अवधारणा का नहीं होना।
*दो* — यह मानना कि अलग देश बनाने के नारे से मिलेगा तो कुछ नहीं, लेकिन दुनिया भर में रहने वाले यहूदियों की मुश्किलें बढ़ जाएंगी। दुनिया भर में यहूदी भेदभाव का निशाना बनेंगे। मजदूर मजदूरी नहीं कर पाएंगे, यहूदी व्यापारी धंधा नहीं कर पाएंगे।
उनकी आशंका सही थी — बाद में यही हुआ भी।
इस जिओनिस्ट -यहूदीवादी – कांग्रेस के समय यानि 1897 में फिलिस्तीन की कुल आबादी 6 लाख थी। इसमें 95% अरब थे (सारे अरब मुस्लिम नहीं थे, ईसाई भी थे) और केवल 5% यहूदी थे। उस जमाने में फिलिस्तीन ऑटोमन साम्राज्य – मोटा मोटी तुर्की साम्राज्य – का हिस्सा हुआ करता था। पहले विश्व युद्ध (1914-19) में विजेता गठबंधन ने इस साम्राज्य को बिखेर दिया था।
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दूसरे विश्व युद्ध (1939-45) के बाद हिटलर के नरसंहारों का शुरुआती और निर्मम निशाना बने यहूदियों के प्रति (यहूदीवादियों के प्रति नहीं) उपजी हमदर्दी का फायदा लूट के लिए दुनिया के बंटवारे की जुगाड़ में लगे साम्राज्य्वादी गिरोह ने उठाया और 1947 में “नए देश” के लिए जमीन का एक हिस्सा देने की बात हुयी। उस समय यानी 1947 में फिलिस्तीन में फिलिस्तीनी अरब 13 लाख 50 हजार थे और फिलिस्तीनी यहूदी करीब साढ़े छः लाख थे और इनका कब्जा सिर्फ 6% जमीन पर था।
1948 में इन्ही ज़िओनिस्टों ने दुनिया भर के यहूदीवादियों को इकठ्ठा करने का नारा दिया और ब्रिटेन, अमरीका, फ़्रांस, आस्ट्रिया आदि देशों के हथियारों की मदद और सैन्य शक्ति के साथ फिलिस्तीन में युद्ध छेड़ दिया गया। इस लड़ाई के बाद इसरायल नाम के देश का जन्म हुआ। इस थोपे गए युद्ध में आधी से ज्यादा – करीब साढ़े सात लाख – फिलिस्तीनी आबादी शरणार्थी बन गयी। अपने देश में ही बेघर या बाहर के देशों में बिना नागरिकता के रहने के लिए मजबूर कर दी गयी।
अब इन शरणार्थियों की तादाद कोई 35 से 40 लाख है। इसे उस वक़्त भी सारी दुनिया ने धिक्कारा था। अब तक के सबसे प्रकाण्ड वैज्ञानिक अल्बर्ट आईन्स्टीन को इस नए देश – इसरायल – का दूसरा राष्ट्रपति बनने का न्यौता दिया गया था, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया था।
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गौतम बुद्ध से लेकर मार्क्स से होते हुए दुनिया भर के विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के सिद्धांतों ने अब बिना किसी संशय के साबित कर दिया है कि घटनायें, सामाजिक-राजनीतिक परिघटनायें अपने आप नहीं घटतीं। हरेक के पीछे एक या एकाधिक कारण होते हैं। 1897 की पहली जिओनिस्ट कांग्रेस, 1947 के संयुक्त राष्ट्र के नए देश के फैसले, 1948 में फिलिस्तीन पर हमले और इसरायल नाम के देश के बनने और उसके बाद संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा की गयी सैकड़ों निंदाओं, आलोचनाओं, भर्त्सनाओं के बावजूद इसरायल की बर्बर गुंडागर्दी और बाकी जमीन पर बस्तियां बसाने,
इस बीच हुए मैड्रिड, ओस्लो, कैंप डेविड समझौतों सहित दर्जन भर अंतर्राष्ट्रीय करारों और पचास, सौ आपसी करारों को इसरायल द्वारा बार-बार, हर बार तोड़ने के पीछे भी कारण है। इस कारण का नाम है साम्राज्यवादी लूट की लिप्सा और दुनिया पर कब्जा करने की हवस।
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पहले विश्व युद्ध के ठीक पहले हुयी जिओनिस्ट कांग्रेस के स्पांसर और फाइनेंसर उस वक़्त के साम्राज्यवादी देश थे। 1948 के हमले के रणनीतिकार थे ब्रिटेन और अमरीका। उसके बाद से जारी सारे हमलों में इसरायल का संरक्षक, मददगार है संयुक्त राज्य अमरीका। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने पूरे इतिहास में जितने प्रस्ताव इसराइल की करतूतों और मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ पारित किये हैं, उतने किसी और मामले में नहीं किये।
संयुक्त राष्ट्र संघ में फिलिस्तीन की समस्या को लेकर जब-जब भी वोटिंग हुयी है, तब-तब ज्यादातर मामलों में इसरायल के पक्ष में सिर्फ एक वोट पड़ा है और यह वोट अमरीका का रहा है।
ट्रूमैन, आइजनहॉवर, केनेडी, जॉनसन, निक्सन से लेकर फोर्ड, कार्टर, रीगन, बड़े-छोटे बुश, क्लिन्टन, ओबामा से होते हुए डोनाल्ड ट्रम्प के अमरीका तक, इस मामले में पूंछ हमेशा टेढ़ी रही है। हाल के दौर ने साबित कर दिया है कि बाइडेन का अमरीका भी इससे अलग नहीं है।
ज़रा से फिलिस्तीन को खंड-खंड करके उस भूभाग में इसरायल को स्थापित करने में साम्राज्यवाद की इतनी दिलचस्पी क्यों है?
सिम्पल सी बात है : दुनिया पर कब्जा जमाने के लिहाज से पश्चिम एशिया (पश्चिमी मीडिया वाले इसे मध्य-पूर्व कहते हैं) का रणनीतिक महत्त्व है। एशिया और अरब देशों की छाती पर सवार रहने के लिए यह मुफीद जगह है — उस पर प्राकृतिक तेल और गैस का अपरिमित भण्डार भी यहीं है। इसलिए तेल अबीब और पश्चिम यरुशलम में चौकी कायम करना उसके लिए धंधे का सवाल है। कुछ लाख लोग मरते हैं, तो मरें — अंतर्राष्ट्रीय क़ानून कुचलते हैं, तो कुचल जाएँ।
ठीक यही कारण है कि भारत की जनता हमेशा से इसरायल की बर्बरता के खिलाफ फिलिस्तीन की जनता और उसके मुक्ति आंदोलन के साथ रही है। उसने साम्राज्यवाद को भुगता है — इसलिए वह फिलिस्तीनी जनता का दर्द जानती है। गांधी से लेकर कम्युनिस्टों तक, नेहरू से लेकर पटेल तक, जयप्रकाश से लेकर चौधरी चरण सिंह तक साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ने वाली सारी धाराएं फिलिस्तीनी जनता के मुक्ति आंदोलन के साथ रहीं। आज भी हैं।
सिर्फ वही लोग इसरायल के साथ रहे/हैं, जो तब ब्रिटिश साम्राज्य का चरणवंदन करते टेढ़े हुए जा रहे थे, अब नमस्ते ट्रम्प करते-करते औंधे पड़े हैं। इन्हें इसरायल बड़ा भाता है — इतना ज्यादा कि वे दुनिया की कुख्यात हत्यारी एजेंसी मोसाद के साथ भारतीय सुरक्षा में साझेदारी तक करने को तत्पर हो जाते हैं। इसरायल के हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार (9 अरब डॉलर) भारत को बना देते है।
(साढ़े चार अरब डॉलर का बाकी व्यापार अलग है।) मोदी के आने के बाद 70 साल में पहली बार ऐसा हुआ है, जब संयुक्त राष्ट्र संघ में इसरायल के विरुद्ध आये प्रस्तावों पर भारत तटस्थ रहा। सैकड़ों देश इसरायल की निंदा करते रहे, मगर हम 135 करोड़ आबादी वाले दुनिया के दूसरे सबसे राष्ट्र कभी ट्रम्प, तो कभी ओबामा का मुंह ताकते रहे।
इसरायल की यह बर्बरता सारे अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और पारित किए गए विभिन्न प्रस्तावों को अंगूठा दिखाना है। इन हमलों के खिलाफ आवाज उठाना जरूरी है। मौजूदा सरकार की चुप्पी शर्मनाक है — यह भारत की आम स्वीकृति वाली विदेश नीति का निषेध है। सरकारें जब विफल होती हैं, तो जनता को आगे आना होता है। इसलिए जनता और उसके संगठनों को फिलिस्तीन की हिमायत में आवाज उठानी होगी। आवाज उठानी होगी
फिलिस्तीनी जनता के हक़ के लिए, अंतर्राष्ट्रीय शान्ति के लिए और सबसे बढ़कर दुनिया को खुद अपने जीने लायक बनाये रखने के लिए,
क्योंकि भेड़िये सिर्फ एक जगह तक महदूद नहीं रहते। जिस “तर्क” पर इसरायल की धींगामुश्ती चल रही है, वह तर्क सिर्फ रामल्ला या गाज़ा या येरुशेलम तक ही नहीं रुकेगा। आँच दूर तक जाएगी।
और अंत में
एक बात गाँठ बाँधने की है और वह यह कि फिलिस्तीन पर हमलों का किसी भी तरह के धार्मिक विवाद से कोई संबंध नहीं है — यह सीधे-सीधे फिलिस्तीन की जमीन पर कब्जा कर उसे अपना उपनिवेश बनाने की साजिश है।
जिस पूर्वी यरूशलम पर कब्जे के लिए पिछ्ला यानि मई 2021 का हमला शुरू हुआ है, वह एक ही पुरखे की निरंतरता में आये दुनिया के तीन धर्मों से जुड़ा ऐतिहासिक शहर है। उस एक किलोमीटर से भी कम दायरे में तीनो धर्मो के जन्म और उनके पैगम्बरों के साथ जुड़ाव के महत्वपूर्ण तीर्थ हैं। यहूदी मान्यताओं के हिसाब से अब्राहम यहीं के थे। ईसा मसीह को यहीं सूली पर चढ़ाया गया था और ईसाई मान्यताओं के हिसाब से यहीं वे पुनर्जीवित हुए थे।
मक्का, मदीना के बाद इस्लाम का यह तीसरा सबसे पवित्र धार्मिक स्थल है। इस्लाम धर्म की घोषणा यहीं हुयी थी और इस्लामिक मान्यताओं के हिसाब से पैगम्बर हजरत मोहम्मद यही से खुदा के पास गए थे ।
इसलिए
फिलिस्तीन का सवाल फिलिस्तीन का नहीं है, पूरे विश्व का है। यही वजह है कि दुनिया भर में यहूदीवादी नेतन्याहू की इजरायल सरकार के हमलों के खिलाफ भेड़ियों को छोड़कर बाकी सब सडकों पर हैं।